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Wednesday, 22 April 2020

सोलह साल की नंगी लड़की Sohal Saal Ki Nangi Ladki Hindi Top Story


वह नंगी थी। अल्मोड़ा के रघुनाथ मंदिर के पास उकड़ूं बैठी हुई। उसकी उम्र लगभग सोलह साल की होगी। सिर से पैर तक काली-काली। दूर से ऐसी लग रही थी जैसे किसी ने मंदिर के आगे काले रंग का कपड़ा फैंक दिया हो। वह नंगी थी ! नहीं। वह नंगी जैसी लग रही थी, क्योंकि जितना काला उसका शरीर था उतने ही काले उसके कपड़े भी थे। ऊपर के हिस्से में एक हाफ टी-शर्ट, जो सालों से धुली न होने के कारण काली पड़ गई थी और निचले हिस्से में घुटने तक का एक फ्राक, जो मैला-कुचैला तो था ही, साथ ही जगह-जगह से फटा हुआ भी था। 
    मेरी नजर अब उसके पैरों से ऊपर की ओर बढ़ रही थी। उकड़ू बैठने के कारण उसका पिछला हिस्सा भी नजर आ रहा था। उसका अंडरवियर भी फटा हुआ था, जिसमें से उसका दाहिना कूल्हा बिल से बाहर झांकते चूहे-सा दिखाई दे रहा था। ज्यों ही मेरी नजर उसकी नजर से मिली, त्यों ही मेरी नजर झुक गई। मैंने वह देखा जो मुझे देखना नहीं चाहिए था। वह नंगी नहीं थी, लेकिन फिर भी वह नंगी थी। क्या था उसके पास ? कुछ भी नहीं। पेट भरने के लिए दो वक्त का भोजन नहीं था उसके पास। शरीर ढकने के लिए दो जोड़ी कपड़े नहीं थे उसके पास। क्या था उसके पास ? कुछ नहीं। 
     वह आदमी सबसे बड़ा नंगा है, जो तन, मन और धन तीनों चीजों से नंगा है। यह सोलह साल की लड़की भी मुझे तीनों चीजों से नंगी नजर आई। तन था उसके पास, लेकिन एकदम दुर्बल। मन था उसके पास, लेकिन पूरी तरह से मुरझाया हुआ, जिसमें शायद ही जीवन का कोई रंग शामिल हो। धन तो बिल्कुल भी नहीं था उसके पास। इसीलिए तो वह कटोरा थामकर वहाँ पर बैठी हुई थी। 
     मेरी नजर अब उससे जल्द-से-जल्द दूर भागना चाह रही थी। उसकी काली-काली देह देखकर मेरा मन स्वयमेव वहाँ से विरक्त होना चाह रहा था। मेरे पैर स्वयमेव पीछे की ओर खिसक रहे थे। जिस उम्र में लड़कियों के शरीर में गुलाब मुस्कुराता है, उस उम्र में उसके शरीर में खिल रहे थे कैक्टस के कांटे। जिस उम्र में लड़कियों के शरीर में नदी बहती है, उस उम्र में उसका शरीर सना हुआ था कीचड़ से। उसकी देह में फैले कैक्टस के कांटे मुझमें भय पैदा कर रहे थे। उसके शरीर में लगा हुआ कीचड़ मेरे मन में घृणा उत्पन्न कर रहा था।
     मैंने देखे उसके सूखी लकड़ी जैसे हाथ-पैर। धूल से सने मकड़ी के जाल जैसे भूरे बालों को, जिन्होंने शायद कभी आज तक तेल का स्वाद चखा ही नहीं था। छोटी-छोटी पिचकी हुई नाक। पापड़ जैसे सूखे होंठ। उसकी गहरी लेकिन सूखी झील जैसी आंखों में मैंने देखा एक सपना कि वह भी बनना चाहती है एक सोलह साल की लड़की। क्या वाकई में सोलह साल की लड़कियां ऐसी ही होती हैं ? 
     एक बार तो मैंने सोचा कि जरूर इस लड़की को यह क्रीम खरीदकर दे देना चाहिए, फिर मैंने सोचा कि इसके लिए तो दो वक्त की रोटी काफी है। क्रीम से यह क्या करेगी ? मैंने कदम आगे बढ़ाये, लेकिन मेरी नजर अब भी उस पर ही टिकी थी। वह अब खड़ी हो गई थी। उसने अपने बायें हाथ में पकड़ा कटोरा आगे कर मुझे आवाज लगाई- "बाबूजी !" मैं वहीं पर ठिठक गया। 
    खैर, मुझे उसका बाबूजी शब्द बड़ा अजीब लगा और उतनी ही अजीब लगी उसकी आवाज। उस अजीब आवाज में थी एक पीड़ा। ऐसी पीड़ा, जो एक बच्चे को होती है उसका खिलौना छीन लेने पर। ऐसी पीड़ा, जो एक खच्चर को होती है,उसके पीठ पर कुंतलों बोझ लाद दिये जाने पर। ऐसी पीड़ा, जो एक बकरे को होती है उसकी बलि देते समय। वह एक शब्द में न जाने कितनी पीड़ाएं थीं। कौन कहता है कि पीड़ा केवल मारने पर ही होती है। पीड़ा तो तब भी होती है, जब सपने मर जानते हैं। कौन कहता है कि जलन तब ही होती है, जब अंगुलियाँ जल जाती हैं। जलन तो तब भी होती है, जब सपने राख हो जाते हैं। 
    सोचता हूँ, क्या वह लड़की सपने देखती होगी ? सपना तो कोई भी देख सकता है ! लेकिन इस लड़की को क्या मालूम कि सपना क्या होता है ? नहीं, अन्य लड़कियों को देखकर जरूर इसके मन में भी खयाल आते होंगे कि वह भी उनकी तरह बने ! काश ! कि काश !! एक अदद खुशी उसके जीवन में भी हो। उसका मुरझाया हुआ चेहरा देखकर लगता नहीं कि आज तक वह कभी मुस्कुराई होगी। किस्से, कथाएँ, खेल, जोक्स, चुटकुले शायद आज तक उसकी जिंदगी में आये ही नहीं होंगे !!
     मैं आगे-पीछे, दायें-बायें चारों तरफ नजर दौड़ाता हूँ। मुझे उस लड़की के सामने से गुजरने वाली अनेक लड़कियां दिखाई देती हैं। एक लड़की जो बीस-इक्कीस साल की लग रही थी, उसने एक नीला टाइट जींस और गुलाबी टाप पहना हुआ था और उसके पैरों में ऊंचे हिल वाले सैंडल मुस्कुरा रहे थे। वह ठक-ठक करती खिलखिलाती हुई अपनी सहेलियों के साथ चली जा रही थी। उसके साथ एक दूसरी लड़की थी, जो संभवतया अठारह साल की थी। उसने निचले हिस्से में एक हाफ जींस पहना हुआ था और ऊपर एक जालीदार टाप, जिसके भीतर गहरी लाल रंग की ब्रा उसकी सुंदरता को और अधिक बढ़ा रही थी। 
      उनके साथ दो और लड़कियाँ थीं, जिनमें से एक ने रंग-बिरंगा सूट पहना हुआ था और दूसरी ने जींस और कमीज पहनी हुई थी। दूसरी वाली लड़की ने कमीज के बटन खोले हुए थे, जिस कारण चलते समय उसके अंत: वस्त्रों के भीतर हलचल पैदा हो रही थी, जो साफ नजर आ रही थी। उस हलचल में इतनी पावर थी कि वह बाजार में चलने वाले लड़कों ही नहीं, वरन बड़े-बुजुर्गों के शरीर, मन, विचारों में खलबली मचा दे। मेरे मन में भी खलबली हुई और सोलह साल की लड़की में खोया हुआ मेरा मन खूबसूरत लड़कियों के रूप जाल में उलझ गया। 
     उन लड़कियों के आगे बढ़ने के बाद मैंने इधर-उधर नजर दौड़ाई। मन ने कहा कि क्यों ना खूबसूरती का आनंद लिया जाय और इनके पीछे-पीछे चला जाय। दरअसल में आदमी बाहर से कितना भी महान बनने की कोशिश करे, लेकिन भीतर से वह नंगा ही होता है। सुंदरता को देखकर मनुष्य का मन बहक जाता है क्योंकि सुंदरता में एक मायावी आकर्षण होता है, जो सबको अपनी ओर खींचता है। उन लड़कियों में एक लड़की मुझे इतनी सुंदर लगी कि मेरा मन गुनगुनाने लगा- "आप जैसा कोई जिंदगी में आए, तो बात बन जाये....।"
     मन भी बड़ी अजीब चीज है। जितनी तेजी से भागता है, उतनी ही तेजी से वापस लौट भी आता है। खूबसूरत लड़कियों से लौटकर मेरा मन पुनः उस सोलह साल की लड़की पर आ टिका था। मैंने सोचा कि क्या उस सोलह साल की लड़की का मन नहीं करता होगा, इन लड़कियों की तरह सुंदर बनने का ? क्या वह नहीं पहनना चाहती होगी विविध किस्म के परिधान ? क्या वह नहीं चाहती होगी उसकी भी सहेलियाँ हों, जिनके साथ वह बातें करे, घूमे-फिरे ? अच्छा खाये, अच्छा पहने, अच्छे घर में रहे ? 
     अचानक ही मेरे ध्यान में खलल पड़ी और दुबारा एक सुनी-सुनाई आवाज मेरे कानों में पड़ी- "बाबूजी !" मैंने नजर घुमाई- "हे भगवान ! यह लड़की तो पीछे ही पड़ गई।" मैंने आवाज को अनसुना करने की कोशिश की, लेकिन तब तक वह मेरे आगे पहुँच चुकी थी। उसके हाथ की कटोरी में एक- एक, दो-दो रूपये के सिक्के दिखाई दे रहे थे। हा ! सोलह साल की उम्र में ऐसा काम ! इस उम्र की लड़की का यह कोई काम है ! यह तो स्कूल जाने की उम्र होती है। पढ़ने-लिखने और मौज-मस्ती करने की उम्र होती है। एक ओर ऐसी सुंदरियाँ भी हैं, जो सब कुछ होते हुए भी नंगी होने में देर नहीं लगातीं और दूसरी ओर यह लड़की भी है, जो नंगी नहीं है, लेकिन फिर भी नंगी है।
      उसका नंगा होना देख रहे हैं, बाजार से गुजरने वाले सभी छोटे-बड़े लोग। उसे हाथ में कटोरा लेकर इधर-उधर भटकते हुए देख रहे हैं सब लोग। वह नेता भी देख रहा है, जो जनता के सामने बड़े-बड़े वादे करता है। कहता है, मैं विकास की गंगा बहा दूंगा । वह समाजसेवी भी देख रहा है, जो जनता के हित के लिए तमाम आंदोलन करने का दावा करता है। वह बुद्धिजीवी भी देख रहा है, जो जहाँ-तहां सिद्धांतों की लाइन लगा देता है। वह शिक्षक भी देख रहा है, जो बच्चों को ज्ञानी बनाकर राष्ट्र के निर्माण का दावा करता है। और मैं भी देख रहा हूँ। सब देख रहे हैं, लेकिन इस नंगी लड़की के सामने जाने पर सब नंगे हो जा रहे हैं। नेता के वादे गायब हो जा रहे हैं। समाजसेवी का सेवाभाव लुप्त हो जा रहा है। बुद्धिजीवी की बुद्धिमत्ता नष्ट हो जा रही है। शिक्षक का ज्ञान दिखाई नहीं दे रहा है। मैं समझ नहीं पा रहा कि यह क्यों हो रहा है ? 
     मैं बाजार की ओर देखता हूँ। पाता हूँ कि बाजार भी मुझे उतनी ही पैनी निगाहों से देख रहा है। बाजार ऐसी जगह है जहाँ किस्म-किस्म के लोग मिलते हैं, लेकिन बाजार की एक विशेषता होती है कि यहाँ सब चीज बिकती है। यहाँ महंगी-से-महंगी और सस्ती से भी सस्ती चीजें मिल जाती हैं और मजे की बात यह है कि सब चीजों के खरीददार भी मिल जाते हैं। 
     शालीनता और सादगी में वास्तविक सौंदर्य है, लेकिन बाजार का इन दोनों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं दीखता। बाजार में चमक-धमक होती है। बनावटीपन होता है। दिखावा होता है। आजकल बाजार पश्चिमी संस्कृति के रंग में डूबे हुए नजर आते हैं। अंग्रेजी बोलना, अंग्रेजी वेशभूषा और रहन-सहन का अनुकरण करने में यहाँ के लोग स्वयं को बड़ा ही सभ्य समझते हैं, किंतु सच तो यह है कि हम सभ्य नहीं हैं बल्कि बंदरों की तरह नकलची हैं। बिना कुछ सोचे-समझे नकल करना हमारी फितरत बन चुकी है।
     बाहर से सभ्य और सुसंस्कृत दिखने वाले लोग भीतर से भी सभ्य और सुसंस्कृत हों, जरूरी नहीं है। बाहर से तो सब एक से बढ़कर एक नजर आते हैं और बाजार की यही खूबी है कि वह दिखता अच्छा है। इसी दिखावे में आकर्षण होता है, चमक होती है और इसी चमक में मेरी आंखें भी खो जाती हैं। मेरा ध्यान एक रेडीमेड कपड़ों की दुकान की ओर खिंचता चला जाता है। 
       इस दुकान के बाहर एक-से-एक लेडीज और जेन्स कपड़े लटके हुए थे, लेकिन सब से ज्यादा मेरा ध्यान उस मूरत ने आकर्षित किया, जो प्लास्टिक की बनी हुई थी, किंतु लग ऐसी रही थी जैसे कोई साक्षात् फिल्मी हीरोइन खड़ी हो। उसने एकदम इस्टाइलिश कपड़े पहने थे। साथ ही सिर में एक टाप भी पहनी थी। उसे देखकर मेरे मन ने कहा- अहा ! कितनी खूबसूरत है यह ! इसे घर ले जाकर इसके साथ शादी कर लेनी चाहिए। 
     आजकल की लड़कियों का कोई भरोसा नहीं। शादी के बाद भी बायफ्रेंड के साथ भाग जाती हैं। उनकी नियति बदलने में जरा भी देर नहीं लगती। अखबारों में नित नये किस्से छपते रहते हैं- अवैध संबंधों के कारण फलाने ने फलाने की हत्या की, फलाने की औरत फलाने के साथ भाग गई, फलाने ने फलाने के चक्कर में अपनी गृहस्थी बरबाद की, फलाने ने फलाने के कारण आत्महत्या की। ऐसे ही सैकड़ों किस्से। कम-से-कम यह मूरत तो ऐसे धोखा नहीं देगी। 
      हाँ ! टी० वी०, अखबारों की बात करूँ तो जनाब मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। रोज एक-न-एक किस्सा लगा रहता है। हत्या, आत्महत्या, लूट, बलात्कार, चोरी-डकैती, धोखाधड़ी, छल-प्रपंच, अवैध-संबंध बस यही मुद्दे छाये रहते हैं। सच कहूँ तो ये संचार माध्यम आदमी के नंगेपन को उजागर करने के माध्यम बन गये हैं। संसार में आदमी ही एक ऐसा प्राणी है, जो वस्त्र पहनने के बावजूद भी नंगा है। नंगा नहीं, बल्कि एकदम चिलम नंगा। 
      अब आप कहोगे कि आदमी तो सभ्य है, उसे चिलम नंगा क्यों कह रहा है ये ! मैं बताता हूँ। जिस तरह से देश में छोटी-छोटी बच्चियों के साथ सामूहिक बलात्कार की घटनाएँ हो रही हैं, उन्हें देखकर आदमी को चिलम नंगा नहीं कहूँ तो और क्या कहूँ ! औरत अगर अपनी वासनापूर्ति हेतु प्रेमी के साथ मिलकर पति को मरवा दे, तो ऐसे में मनुष्य को चिलम नंगा नहीं कहूँ तो और क्या कहूँ। आदमी अगर जमीन, जायजाद, धन-संपत्ति के लिए रिश्तों को तार-तार कर दे, अपना जमीर बेच दे, तो ऐसे में आदमी को चिलम नंगा नहीं कहूँ तो और क्या कहूँ ?? 
      मेरे आक्रोश को और गति मिलती इससे पहले ही दृश्य बदल गया। एक सुंदर लड़की आकर उस मूरत के पहने हुए कपड़ों को देखने लगी। इस सुंदर लड़की ने भी अपने सिर पर हैट पहना हुआ था। इन दोनों मूरत और सूरत को देखकर मुझे ऐसा लगा जैसे उन्होंने टोप नहीं पहना है, बल्कि पूरा ब्रह्माण्ड अपने सिर पर धारण कर रखा है। पूरी दुनिया उनके सिर पर घूम रही है। 
     "बाबूजी !" गीत के साथ ही फिर वही कसक भरी आवाज मेरे कानों से होकर गुजरी। वह सोलह साल की लड़की कटोरा पकड़कर ठीक मेरे आगे खड़ी हो गई थी। मुझे गुस्सा आया- "बाबूजी, बाबूजी क्या लगा रखा है तूने ! मैं अभी छब्बीस साल का जवान लौंडा हूँ। दिखता नहीं क्या तुझे ? अच्छा खासा मूड खराब कर दिया।" मैंने उससे कहा और उसकी ओर से ध्यान हटाकर तेजी से मंदिर की ओर कदम बढ़ा दिए। 
       मंदिर में मैंने हाथ जोड़े और पचास रूपये का नोट पर्स से निकालकर पुजारी की थाली में रख दिया और भगवान से विनती की- "हे प्रभु ! ध्यान रखना। सब अच्छा करना। कमाई होती रहे। घरबार चलता रहे।" इसके पश्चात मैं बाहर की ओर आ गया, लेकिन सीढ़ी पर पहुंचते ही देखता हूँ कि वही सोलह साल की लड़की दुबारा मेरे सामने खड़ी है, जैसे ही मेरे ऊपर उसकी नजर पड़ी उसने कटोरा आगे बढ़ा दिया- "बाबूजी, एक-दो रूपया जितना भी है, उतना दे दो। भगवान भला करेगा।"

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