“मेरी प्यारी बहन अन्नी आज तुझे हमसे बिछड़े हुए पूरे अट्ठाईस बरस हो गए, अगर तू अब होती तो देख पाती कि देह के रंग के कोई विशेष मायने नहीं होते। तेरे जाने के बरस भर बाद, जब मेधा जन्मी तो मुझे लगा जैसे तू ही घर लौट आई । उसमें मैंने हमेशा तुझे देखा । मैंने उसे नहीं, जैसे तुझे पाला। तेरे अंतहीन, अपराजेय अवसाद को निर्मूल कर देने की धुन में उसे पूरी तरह आत्मनिर्भर और सक्षम बना दिया । तेरी इस भतीजी ने आई आई टी रुड़की बी टेक इलेक्ट्रौनिक्स में टॉप किया । डिफ़ैंस कॉलेज ऑफ एडवांस टैकनोलोजी से एम टेक में भी टॉप ही करने के बाद उसे डी आर डी ओ द्वारा चलाए जा रहे प्रोग्राम में भारत के दस युवाओं में से एक चुना गया। वहीं उसे अपेक्षाकृत कठिन कोर्स, गाइडेड वैपन के निर्माण के लिए चुना गया । उसके, यानि तेरे सातों आसमान तब उसकी, यानि तेरी मुट्ठी में कैद हो गए जब उसे भारत की जटिलतम मिसाइल निर्माण के लिए वैज्ञानिकों की टीम का प्रमुख चुना गया । सफल होने के रास्ते तो और भी हो सकते थे अन्नी, पर मैंने उसे वहीं भेजा क्योंकि वैज्ञानिक परीक्षण वैज्ञानिक की देह का रंग देखकर सफल या असफल नहीं होते । अब उसका जीवन उसके रंग रूप से तो प्रभावित होने नहीं जा रहा अन्नी । पता है तेरी इस काली स्याह भतीजी मेधा के सामने एक से एक गोरी लड़कियों के सौंदर्य फीके पड़ गए, सहपाठी लड़कों के पुरुषत्व के घमंड में प्रधान बनने के सारे के सारे अभिमान उसके व्यक्तित्व से टकरा कर चूर - चूर हो गए। काश तू भी अभी जन्मती अन्नी तब जबकि मैं इतना बड़ा था, तब तुझे यूं हिम्मत हारनी नहीं पड़ती मेरी प्यारी बहन । तीन भाई थे अन्नी के । दो विदेश चले गए थे सबसे छोटा अजय इंजीनियरिंग करके अपने ही शहर में नौकरी कर रहा था । सबसे छोटी और इकलौती बहन थी अन्नी, काली स्याह अन्नी । सचमुच बहुत ही काला रंग था उसका, मैला - मैला सा , छोटी - छोटी, गोल - गोल आँखें , सलेटी रंग के होंठ और सिर पर उलझे - उलझे काले घुंघराले बालों का बेतरतीब घना छत्ता, पिता जैसा पक्का रंग, माँ जैसे हौच पौच नैन नक्श और ठिगनी रास । पढ़ाई के नाम पर भी उसके पिता उसे आर्ट्स में ग्रैजुएट ही करा पाये थे, वो भी प्राइवेट, जिसके इस गलाकाट प्रतियोगिता वाले समय में मायने ही क्या हैं । फलस्वरूप उसका मन रसोई में रम गया था। पाक कला की शौकीन और प्रवीण अन्नी खूब बनाती, खूब खिलाती और खूब खाती भी । इस स्वादीले शौक के चलते कब उसका शरीर उसकी उम्र से बड़ा हो गया पता ही नहीं चला । उसमें किसी लड़के या लड़के वालों को “पसंद” करने योग्य कोई विशेष तो क्या साधारण बात भी दिखाई नहीं दी । तो क्या कोई भी गुण दिया ही नहीं था प्रकृति ने उसे ? नहीं, ऐसी बात नहीं, उसे तो गुणों की खान भी कहा जा सकता था , उसकी निर्दोष खिलखिलाहटें , उसकी दुर्लभ निश्छलता ,धुले पारदर्शी काँच सा साफ मन और अपने पराए हरेक के लिए उसकी छोटी - छोटी आँखों से झाँकता स्नेह का विशाल सागर , क्या ये वो विशेषताएँ नहीं हैं जिन्हें उसके गुणों में सम्मिलित किया जा सकता ? परंतु बाजारवाद के इस अंधे युग में अकसर खूबसूरत कवर में घटिया चीज़ें खरीद लाने वाले लोग आंतरिक सौन्दर्य के याचक होते ही कहाँ हैं। कभी वो माँ से छिप कर चेहरे पर मुलतानी मिट्टी, तो कभी बेसन का लेप लगाती, कभी चुपके से अपनी भाभी की गोरेपन की क्रीम लगा लेती, पत्रिकाओं में रंग निखारने के नुस्खे पढ़ती । पर अपनी मौलिकता पर दृढ़ प्रतिज्ञ चेहरे का रंग उन्नीस - बीस का अंतर भी तो ना दिखाता । अन्नी ने काया को छरहरी करने के कठिन क्रम में घर के काम काज का अधिक से अधिक भार खुद पर ले लिया था , खाना भी ना के बराबर ही खाती । खाने की शौकीन वो मासूम लड़की भूखी रहकर अवसाद की चपेट में आने लगी । रोज़ - रोज़ लड़का खोजने जाते रहने के व्यय और थकान से आजिज़ आ गए निम्न मध्यम वर्गीय पिता भी उसको ही परेशानी का कारण मानने लगे और उसके प्रति उनकी दृष्टि भी कठोर होते गई जिसने उसे भीतर तक आहत कर डाला । रही सही कसर भाई अजय की नौकरी में व्यस्तता ने पूरी कर दी । वह रात पड़े ही घर में घुस पाता, घर आकर भी कम्प्यूटर पर काम करना होता, बचा हुआ थोड़ा बहुत समय, पत्नी आभा को भी देना ही होता । ऑफिस में वह अन्नी के ब्याह की तमाम जुगत भिड़ा रहा था अन्नी को बताए बगैर । परंतु कोई सफलता हाथ नहीं लग रही थी । परिवार और समाज द्वारा कुछ अंजाने ही और कुछ जान पूछकर की गईं उपेक्षाओं के मध्य वो निश्छल, निर्मल मन भोली लड़की भ्रमित होकर रह गई । ऊपर से दिल दहला देने वाली, हर अस्वीकृति के बाद , अपनी ही माँ के ताने - उलाहने और अपने ही पिता की कठोर होती दृष्टि सहती वह । इकत्तीस बरस की आयु मे हताश हो उन्हीं भयानक अस्वीकारों , तिरस्कारों, उपेक्षाओं और ताने – उलाहनों को उसने अपने ही दुपट्टे के साथ मजबूती से बटा और उसका एक सिरा अपनी गर्दन में और दूसरा पंखे की छड़ से बांधकर अपनी काली, मोटी काया लेकर मौत का झूला झूल गई । वो भोली घरेलू लड़की, दूसरी पढ़ी - लिखी लड़कियों की तरह अपनी भावुकता पर नकेल कसना सीख ही कहाँ पाई थी । परिवार अपनी नासमझियों का यह प्रतिफल सोच भी नहीं सकता था । सब हताश थे विशेषकर अजय बहुत व्याकुल हो उठा था ।अजय उसकी पढ़ाई के समय उसकी मदद नहीं कर सका था तब वह भी तो पढ़ाई ही कर रहा था । परंतु अब तो वह स्वयं कमाता था । उसने अन्नी को फिर से पढ़ाने लिखाने का प्रयास भी किया था परंतु इस बार अन्नी ध्यान लगा ही नहीं सकी थी पढ़ने लिखने में । अन्नी की आत्महत्या के ठीक एक बरस बाद अन्नी के तीसरे, यानि सबसे छोटे भाई अजय विश्वास की पहली संतान, उसकी बेटी ने जन्म लिया । बच्ची की झलक मात्र ही परिवार का दिल बैठाने के लिए काफी थी । जैसे मर कर भी अन्नी अपने प्यारे भाई अजय से अलग रह नहीं सकी थी । और बरस भर बाद, इतिहास को दौहराने चुपके से वापस अपने घर चली आई थी। बच्ची का जन्म घर में खासा मातम लेकर आया । अन्नी की भयावह मृत्यु का धुंधलाता दृश्य खुद को झाड़ पोंछ कर घर के हर सदस्य के दिल में सीना तानकर आ खड़ा हुआ । सब एक दूसरे से आँखें चुरा रहे थे, कभी दीवार पर टंगी अन्नी की माला चढ़ी तस्वीर को देखते कभी दृष्टि चुराकर उस नवजात को । रूपरंग को लेकर समाज की खोखली मान्यताओं से जन्मी उपेक्षा ने माँ आभा की आँखों से बच्ची के लिए नैसर्गिक ममता को पीछे धकेल दिया था । आभा की आँखों में अन्नी की असमय मृत्यु का आतंक उस नन्ही बच्ची के भविष्य के भय से जुड़ गया था । जिसे बच्ची के पिता अजय विश्वास ने सहज ही ताड़ लिया । स्त्रियाँ भी विचित्र ही होती हैं खुद कैसी भी आड़ी तिरछी क्यों न हों परंतु बहू बेटियों में रूप सौंदर्य की कमी उनके लिए घर में जैसे अमावस्या सा अंधकार ला पटकती है । कहीं न कहीं अजय को तो संतोष ही हुआ था इस रूप में अन्नी के लौट आने का । वह इस बार अन्नी के अथाह प्यार के ऋण से उऋण होने का अवसर पा गया था जैसे । इस बच्ची को योग्य बनाकर माँ, बाबूजी और सारे समाज द्वारा की गई उसकी उपेक्षा और उसके साथ हुई नाइंसाफी के पश्चाताप से मुक्ति पा जाने का यह रास्ता दिया था प्रकृति ने उसे वह समझ गया । और उसने आभा के पास लेटी बच्ची को अपनी गोद में उठा लिया था । माँ - बाबू जी को उनकी पहली पोती तथा पत्नी को उसकी पहली संतान की बधाई देकर माहौल को थोड़ा हल्का किया । अजय अपने परिवार में सबसे अधिक पढ़ा लिखा था, प्रगतिशील विचारों से भरा युवा, आधुनिक होते समाज का हिस्सा, जो यह जानता था कि आने वाला कल स्त्री का भी होगा जहां उसके रंग रूप से उसका जीवन प्रभावित नहीं होगा । इसलिए वही कर सकता था यह सब । इसलिए नहीं कि वह पुरुष था तो वही सोच सकता था । एक स्त्री वो भी माँ, अपनी बेटी के लिए ज़रा भी नरम नहीं थी और एक पुरुष, भाई ही सही पर अपनी बहन की पीड़ा को समझ सका । अपने लिए उसके निःस्वार्थ प्यार को समझ सका था , जिसका प्रतिफल न दे पाने का पश्चाताप बारीक सुईं की नोक बनकर उसे भीतर तक चुभता रहता । स्त्री अगर अन्नी के स्थान पर कोई और होती जिसने समाज के, घर के इस रूप से आजिज़ आकर यह कदम उठाया होता तो संभवतः अजय भी तटस्थ ही रहा होता परंतु यह तो उसकी लाड़ली बहन अन्नी के साथ ही हुआ था न । इस समय उसकी तटस्थता उसके जीवन को निर्मूल ही कर सकती थी ।
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